पृष्ठभूमि



एक समय में भारत की समृद्ध समझी जाने वाली जैव विविधता का पिछले पचास वर्षों में अत्यधिक नाश हो गया है। मनुष्य तथा पशु जनसंख्या मे तेजी से वृद्धि एवम् असन्तुलित प्रगति के कारणों से जैव विवि हुई ही है और साथ ही साथ देश की समृद्ध वन्य सम्पदा एवं प्राकृतिकवास, जिन पर देश को गर्व था, प्राय नष्ट हो गई है इस गिरावट को किस प्रकार से रोका जाये तथा इस प्रक्रिया को कैसे पलटा जाये यह चिन्तन का विषय है। धता नष्ट तो 

इस प्रकार के अन्तरावलोकन की भावना एक अच्छा संकेत है । कुछ और भी प्रोत्साहित करने वाले कारक देखे जा रहे हैं, उदाहरणतः वन विभाग जो देश में वनों का संरक्षक माने जाते हैं, अब वनों को केवल कच्चा माल पैदा करने वाला माध्यम न मानकर इस पर्यावरण रूपी पहिये में एक महत्वपूर्ण पुर्जे का कार्य करने लगा है। इस प्रकार की जागरूकता अतीत में पर्यावरण तथा वन क्षेत्रों की सुरक्षा में हुई त्रुटियों को तथा विफलताओं को दूर करने में दीर्घावधि में अत्यन्त सहायक होगी। यह अनुभूति देश में जैव विविधता को जीवित रखने का सशक्त माध्यम बन गयी है।

इस परिस्थिति में एक ऐसी संस्था की स्थापना की आवश्यकता महसूस होने लगी थी जो कि इस प्रक्रिया में किये जा रहे प्रयासों को और भी प्रभावशाली   बना सके। वनों की परिपूर्ण सुरक्षा, उनका प्रबंधन, उनकी जैव विविधता तथा उनके परिवेश में रहने वाले लोगों के हितों की रक्षा के लिये एक ऐसी संस्था की स्थापना की आवश्यकता अनुभव की गई जो व्यवाहारिक तथा वैज्ञानिक पद्धति से यह कार्य कर सके। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये भारतीय वन्यजीव संस्थान (भावसं) देहरादून की स्थापना 1982 में की गई। भारतीय वन्यजीव संस्थान की स्थापना इस आश्य से की गई थी कि यह संस्था सरकारी तथा गैर सरकारी कर्मचारियों को प्रशिक्षण देने, अनुसंधान कराने की सुविधा प्रदान करने, संसाधनों का प्रबंधन तथा वन्यजीवों की सुरक्षा एवम परामर्श का कार्य करे।

भारतीय वन्यजीव संस्थान के लिये यह एक चुनौतीपूर्ण कार्य था, विशेषकर जबकि वन प्रबंधन शिक्षा में वन्यजीवों पर कोई पाठयक्रम सम्मिलित नहीं किया गया था तथा वन्यजीव विज्ञान पाठ्यक्रम को विश्वविद्यालय शिक्षा प्रणाली में कोई महत्व नहीं दिया गया था। इस कारण कोई ऐसा उदाहरण भी नहीं था, जिसका भारतीय वन्यजीव संस्थान अनुसरण कर सके। इस कारण भारतीय वन्यजीव संस्थान को न केवल अपने विवेक से वन शिक्षा में वन्यजीव विज्ञान का समावेश करना पड़ा, बल्कि इस पाठयक्रम को सुचारू रूप से चलाने के लिये संसाधनों का भी निर्माण करना पड़ा।

आगे चल कर यही बात संस्था की सबसे बड़ी शक्ति सिद्ध हुई क्योंकि इस नई प्रणाली ने भारतीय वन्यजीव संस्थान द्वारा चलाये जा रहे अकादमिक कार्यक्रमों की मजबूत नींव रखी तथा इन कार्यक्रमों को नीरस होने से भी बचा लिया। भारतीय वन्यजीव संस्थान द्वारा चलाये जा रहे अकादमिक कार्यक्रम प्रयोगात्मक वातावरण से जुड़े हैं, जिसमें विशाल क्षेत्रीय भूदृश्य के जैविक, सामाजिक, आर्थिक एवं मानवतावादी पक्षों का भी समावेश किया गया है। फलतः वन्यजीव संरक्षण अब केवल कुछ प्रजातियों को सुरक्षा प्रदान करने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह एक परिपूर्ण कार्यक्रम है, जिसमें वनों के पर्यावरण में रहने वाले स्थानीय समुदाय के कल्याण का भी पूरा ध्यान रखा गया है।


भारतीय वन्यजीव संस्थान को संस्था निर्माण में, शिक्षकों की क्षमतावृद्धि में, आधुनिक तकनीक का समावेश करने में तथा वैज्ञानिक ढाँचा निर्माण करने में अंतरराष्ट्रीय तथा द्विपक्षीय सहभागिता से काफी लाभ हुआ है।
भारतीय वन्यजीव संस्थान की अनुसंधान परियोजनायें पूरे देश में चलाई जाती हैं, जो संरक्षण में मदद करने के लिये वैज्ञानिक सूचनाओं का प्राथमिक स्रोत हैं। इस पद्धति के द्वारा भारतीय वन्यजीव संस्थान में कार्यरत संकाय सदस्य इस क्षेत्र में उपयोग की जाने वाली तकनीक तथा परिस्थिति से भी अवगत होते हैं, जिससे उनको प्रशिक्षण देने में बहुत सहायता मिलती है। 

इन संगठनों के सहयोग से भारतीय वन्यजीव संस्थान को कठोर परिक्षण तथा आधुनिक और विश्लेषणात्मक तकनीक के द्वारा अपने संकाय को सक्षम बनाने में सहायता मिली। 

भारतीय वन्यजीव संस्थान को अप्रैल 1986 में स्वायत्तता के लिये स्वीकृति प्रदान की गयी, जिससे इसकी प्रगति की रफ्तार में और वृद्धि हुई। दक्षिण एशिया तथा दक्षिण-पूर्व एशिया के कई

देशों से इस संस्था में प्रशिक्षण के लिये लोग निरन्तर आते रहते हैं इस कारण से भी भारतीय वन्यजीव संस्थान को प्रशिक्षण और शिक्षा के लिये वन्यजीव प्रबंधन और संरक्षण में एक महत्वपूर्ण क्षेत्रीय केन्द्र माना जाता है।